मंगलवार, 30 जून 2020

भारतीय संस्कृति का जीवनशैली पर प्रभाव


हमारे भारतीय संस्कृति का मनुष्य के जीवन शैली पर गहरा प्रभाव पड़ता है। संस्कृति मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाती है। संस्कृति मनुष्य को नियमों में बांध कर रखती है ताकि मनुष्य का जीवन खुशहाल एवं सुखमय हो। इसका अर्थ यह नहीं कि संस्कृति मनुष्य को जकड़ कर रखी हुई है । हमारे भारतीय संस्कृति का प्रभाव ऐसा है कि विश्व के लोग प्रभावित हो जाते हैं और बहुत सारे लोग जो विदेश से आते हैं भारतीय संस्कृति के बारे में अध्ययन करते हैं तथा उसे अपना कर अपने मन को शांत करते हैं। मनुष्य में भारतीय संस्कृति का प्रभाव उसके हर क्रिया पर दिखाई पड़ता है जैसे कि उठना, बैठना, किसी से बात करना, अभिवादन आदि। जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उस बच्चे का नामकरण विधिवत होता है तब से लेकर उस मनुष्य के मरने तक बहुत सारे संस्कार होते हैं। जब किसी से मिलते हैं तब अभिवादन में 'नमस्कार ' कहते हैं। यदि देखा जाए तो मनुष्य को मनुष्य के साथ जोड़ने का काम संस्कृति करती है। उदाहरण के तौर पर यदि जब हम किसी अनजान आदमी से मिलते हैं और उसे बड़ी नम्रता के साथ आदर पूर्वक बात करते हैं तो उन्हें अच्छा लगता है और इस तरह पहचान बन जाती है। हमारी संस्कृति में बड़ों का प्रणाम करने का रिवाज है जब हम बड़ों को प्रणाम करते हैं तो बड़ों का हमारे प्रति प्रेम बढ़ जाता है। संस्कृति मनुष्य को संस्कार युक्त बनाती है। संस्कृति कभी भी मनुष्य को यह नहीं सिखाती है कि किसी का अनादर करें या अपमान करें।
भारतीय संस्कृति का जीवनशैली पर प्रभाव

मनुष्य को अपनी संस्कृति का पालन करना चाहिए । भारत में मेहमान को देवता समान माना गया है तभी तो कहते हैं " अतिथि देवो भव " । यह सब चीजें बच्चों को सिखाया जाता है ताकि बच्चे संस्कृति को समझ सके। संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’। कहा जाता है कि जिस मनुष्य में संस्कृति होता है उसका जीवन सावर जाता है और इसके उल्टा जिस मनुष्य में संस्कृति नहीं पाई जाती उसकी जिंदगी बेकार हो जाती है क्योंकि उसे जीवन जीने की सही कला का पता ही नहीं होता है।


भारतीय संस्कृति का जीवनशैली पर प्रभाव


 भारतीय संस्कृति का जन्म :


किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, जबकि असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सब व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। इसी सहयोग के कारण किसी देश की संस्कृति का निर्माण होता है। किसी भी देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए उस देश की संस्कृति का होना अनिवार्य है। जैसे कि हमारे भारतीय संस्कृति है और हमारी भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों से चली आ रही है तथा सबसे प्राचीन संस्कृति में से एक है। संस्कृति की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूँगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूँगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे घर बनाकर समाप्त हो गए। फिर नए कीड़ों ने घर बनाये, उनका भी अन्त हो गया। इसके बाद उनकी अगली पीढ़ी ने भी यही किया और यह क्रम हजारों वर्ष तक निरन्तर चलता रहा। आज उन सब मूगों के नन्हे-नन्हे घरों ने परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है। संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उनके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की रचना भी इसी प्रकार हुई है ।



संस्कृति और सभ्यता  का क्षेत्र



संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में उपयोग कर दिये जाते हैं। लेकिन दोनों में मौलिक भिन्नता है और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है और उसका निवास उसके मानस में होता है। दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है। 'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ होता है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'। इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक स्वरूप को आकार देती है। लेकिन यदि देखा जाए तो संस्कृति तथा सभ्यता दोनों ही सामान ही है ।
               सत्य, शिव और सुन्दर ये तीन शाश्वत मूल्य हैं जो संस्कृति से निकट से जुड़े हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौन्दर्य प्रदान करती है और सौन्दर्यनुभूतिपरक मानव बनाती है। यह संस्कृति ही है जो हमें नैतिक मानव बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है। इस तरह संस्कृति मानव समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाती है। 



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सोमवार, 29 जून 2020

भारत और चीन संबंध


भारत और चीन दोनों ही पड़ोसी देश है। विश्व स्तर पर देखा जाए तो दोनों ही देशों की गिनती विकासशील देशों में की जाती है। जनसंख्या के मामले में भी दोनों देश विश्व स्तर पर आगे है। दोनों के बीच लम्बी सीमा-रेखा है। इन दोनों में प्रचीन काल से ही सांस्कृतिक तथा आर्थिक सम्बन्ध रहे हैं। भारत से बौद्ध धर्म का प्रचार चीन की भूमि पर हुआ है। चीन के लोगों ने प्राचीन काल से ही बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत के विश्वविद्यालयों अर्थात् नालन्दा विश्वविद्यालय एवं तक्षशिला विश्वविद्यालय को चुना था क्योंकि उस समय संसार में अपने तरह के यही दो विश्वविद्यालय शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। उस काल में यूरोप के लोग जंगली अवस्था में थे। इस तरह देखा जाए तो भारत और चीन दोनों ही देशों के बीच बहुत पुराना रिश्ता रहा है। लेकिन वर्तमान में देखा जाए तो सीमा विवाद और कुछ विवाद दोनों देशों के बीच गरमाया रहता है। वर्तमान स्थिति में दोनों देशों के संबंध के बारे में समझने के लिए दोनों देशों के बीच प्राचीन काल से ही क्या संबंध रहा है इसको समझना बहुत जरूरी है। जैसा कि बताया कि भारत और चीन दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक संबंध रहा है। 
भारत और चीन संबंध


1946 में चीन के साम्यवादी शासन की स्थापना हुई। दोनों देशों के बीच मैत्री सम्बन्ध बराबर बने रहे। जापानी साम्राज्यवाद के विरूद्ध चीन के संघर्ष के प्रति भारत द्वारा सहानभूति प्रकट की गई एवं पंचशील पर आस्था भी प्रकट की गई। वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद आने वाले अगले वर्ष, भारत ने चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये। इस तरह भारत, चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैर-समाजवादी देश बना। इसके बाद चीन और भारत दोनों देशों के बीच बहुत सारे विवाद भी हुए तथा बहुत सारी राजनीतिक मुलाकात भी हुई। चीन ने सन 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत की बहुत सारी जमीन पर कब्जा कर लिया । इतना सब कुछ करने के बाद चीन ने 21 नवंबर सन 1962 युद्ध विराम की घोषणा कर दी यह निर्णय एकपक्षीय था। इस तरह 1962 के बाद से लेकर वर्तमान तक चीन और भारत दोनों की स्थितियां सामान्य नहीं हो पाई । बीच-बीच में विवाद बहुत बड़ा रूप ले लेती है।
          भारत और चीन के बीच बहुत बड़ा आर्थिक संबंध भी है। दोनों देशों के द्वारा एक दूसरे के देश में आर्थिक निवेश किया जाता है।चीन और भारत के बीच अरबों डॉलर का व्यापार है। 2008 में चीन भारत का सबसे बड़ा बिज़नेस पार्टनर बन गया था। 2014 में चीन ने भारत में 116 बिलियन डॉलर का निवेश किया जो 2017 में 160 बिलियन डॉलर हो गया। 2018-19 में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार करीब 88 अरब डॉलर रहा। यह बात महत्वपूर्ण है कि पहली बार भारत, चीन के साथ व्यापार घाटा 10 अरब डॉलर तक कम करने में सफल रहा।चीन वर्तमान में भारतीय उत्पादों का तीसरी बड़ा निर्यात बाजार है। वहीं चीन से भारत सबसे ज्यादा आयात करता है और भारत, चीन के लिए उभरता हुआ बाज़ार है। चीन से भारत मुख्यतः इलेक्ट्रिक उपकरण, मेकेनिकल सामान, कार्बनिक रसायनों आदि का आयात करता है। वहीं भारत से चीन को मुख्य रूप से, खनिज ईंधन और कपास आदि का निर्यात किया जाता है। भारत में चीनी टेलिकॉम कंपनियाँ 1999 से ही हैं और वे काफी पैसा कमा रही हैं। इनसे भारत को भी लाभ हुआ है। भारत में चीनी मोबाइल का मार्केट भी बहुत बड़ा है। चीन दिल्ली मेट्रो में भी लगा हुआ है। दिल्ली मेट्रो में एसयूजीसी (शंघाई अर्बन ग्रुप कॉर्पोरेशन) नाम की कंपनी काम कर रही है। भारतीय सोलर मार्केट चीनी उत्पाद पर निर्भर है। इसका दो बिलियन डॉलर का व्यापार है। भारत का थर्मल पावर भी चीनियों पर ही निर्भर है। पावर सेक्टर के 70 से 80 फीसदी उत्पाद चीन से आते हैं। इस तरह चीन का भारत के साथ बहुत बड़ा व्यापारिक संबंध भी है।




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शनिवार, 27 जून 2020

संस्कृति का प्रकृति के साथ जुड़ाव


जब हम प्रकृति के बारे में बात करते हैं तब हम यह देखते हैं कि हमारी संस्कृति का प्रकृति के साथ सामंजस्य जुड़ता है। हमारी भारतीय संस्कृति का प्रकृति के साथ जुड़ाव नजर आते हैं। यह हमारी संस्कृति का प्रकृति के प्रति प्रेम दिखाई पड़ता है। प्रकृति की समय धारा के साथ हमारी भारतीय संस्कृति में तरह-तरह के त्यौहार तथा रीति रिवाज दिखाई पड़ता है। हमने अपनी संस्कृति को प्रकृति के साथ जोड़ दिया है। हमारे भारतीय संस्कृति में पेड़ पौधों की पूजा की जाती है यह भी प्रकृति के प्रति श्रद्धा को प्रदर्शित करता है। पीपल और बरगद जैसे विशाल वृक्ष को हम पूज्य तुल्य समझते हैं और हम जानते हैं यह विशाल वृक्ष हमें भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन प्रदान करता है। कहां जाता है जो क्षेत्र पीपल और बरगद के वृक्ष से ढका हुआ रहता है उसके चारों ओर ऑक्सीजन की मात्रा 25% अत्यधिक होती है। पशु पक्षियों को भी संस्कृति के तहत पूज्य तुल्य समझते हैं। गाय को माता समझा जाता है क्योंकि गाय माता की प्रेम, शालीनता आदि मनुष्य को भाती है। गौ माता का गोबर तथा मूत्र को पवित्र माना जाता है। भारत के प्रायः हर घर में तुलसी का पौधा पाया जाता है क्योंकि तुलसी को पवित्र माना जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो तुलसी का पौधा ऑक्सीजन प्रचुर मात्रा में प्रदान करती है तथा तुलसी का पौधा बहुत सारे दवाइयां में भी उपयोग लाई जाती है। इस पौधे का उपयोग पूजा पाठ में भी किया जाता है। 
संस्कृति का प्रकृति के साथ जुड़ाव

भारतीय संस्कृति के हिंदू धर्म में प्रकृति के पंचतत्व को देव तुल्य समझते हैं। हवा को वायु देव, आग अग्नि देव, धरती को माता कहा जाता है, बारिश के लिए इंद्र देव की पूजा की जाती है। सूरज को सूर्य देव, चंद्रमा को चंद्रदेव, ब्रह्मांड के सभी ग्रहों की भी पूजा की जाती है। 
         हिंदू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है।
            प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है।
            जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु।' यही कारण है कि हिन्दू जीवन के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है। हम कह सकते हैं कि इन्हीं वनों में हमारी सांस्कृतिक विरासत का सम्वद्र्धन हुआ है। हिन्दू संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण हिन्दू स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाता है। सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है।
              हमारे भारतीय संस्कृति में प्रकृति के हर चीज का विशेष महत्व है। हर पुष्प का उपयोग हिंदू धर्म में अलग-अलग भगवान को अर्पित करने के लिए किया जाता है जैसे लक्ष्मी माता को कमल का फूल पसंद है तथा गुलाब का उपयोग लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है । गणेश भगवान को प्रसन्न करने के लिए दूर्वा का उपयोग किया जाता है । प्रकृति के हर जानवर को हिंदू संस्कृति के तहत भगवान के वाहन के तौर पर जोड़ दिया गया है जैसे कि चूहा गणेश भगवान का वाहन है, नंदी महादेव के वाहन है, शेर दुर्गा माता के वाहन हैं आदि । इस तरह हम देख सकते हैं कि भारतीय संस्कृति का आखिर किस तरह प्रकृति के साथ जुड़ाव है।



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गुरुवार, 25 जून 2020

छत्तीसगढ राज्य की संस्कृति : भाग - 01


"सब्बो संगवारी मन ला जय जोहार" 




छत्तीसगढ़ हमारे भारत देश का एक राज्य है। इसका गठन १ नवम्बर २००० को हुआ था और यह भारत का २६वां राज्य है। पहले यह मध्यप्रदेश के अन्तर्गत था । कहते हैं कि किसी समय में इस क्षेत्र में 36 गढ़ थे, इसलिए इसका नाम छत्तीसगढ़ पड़ा । लेकिन गढ़ों की संख्या में परिवर्तन होने के बावजूद नाम पर कोई असर नहीं पड़ा । भारत का छत्तीसगढ़ राज्य सभी राज्यों में से एक ऐसा राज्य है जिसे महतारी मतलब मां का दर्जा दिया जाता है । भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो मगध जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा "दक्षिण कौशल" जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है। एक संसाधन संपन्न राज्य, यह देश के लिए बिजली और इस्पात का एक स्रोत है, जिसका उत्पादन कुल स्टील का 15% है। छत्तीसगढ़ भारत में सबसे तेजी से विकसित राज्यों में से एक है । 
छत्तीसगढ राज्य की संस्कृति : भाग - 01

 हम आपको  अपने भारत की प्राचीन भारतीय संस्कृति ब्लॉग के तहत भारत के हर राज्य की संस्कृति के बारे में बताएंगे। फिलहाल अभी भारत की छत्तीसगढ़ राज्य के संस्कृति के बारे में बता रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य की संस्कृति भी विशाल है। यहां की संस्कृति के बारे में जब अध्ययन करते हैं तब यहां की संस्कृति, सभ्यता, वेशभूषा, भाषा, बोली, रहन सहन, खानपान, त्योहार, आदि में एक विशेषता दिखाई पड़ती है। छत्तीसगढ़ राज्य की भाषा छत्तीसगढ़ी है जिसे यहां के लोग छत्तीसगढ़ी भाखा कहते हैं। इसके साथ साथ छत्तीसगढ़ में बहुत सारी बोलियां तथाा भाषाएं बोली जाती है। छत्तीसगढ़ की भौगोलिक संरचना भी इस राज्य की सुंदरता को बढ़ा देती है। छत्तीसगढ़़ राज्य अभी भी घनेे जंगलों को संभाल कर रखी हुई है।
छत्तीसगढ राज्य की संस्कृति : भाग - 01

छत्तीसगढ़ की संस्कृति सम्पूर्ण भारत में अपना बहुत ही ख़ास महत्त्व रखती है। भारत के हृदय-स्थल पर स्थित छत्तीसगढ़, जो भगवान श्रीराम की कर्मभूमि रही है। प्राचीन कला, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है। यहाँ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अयोध्या के राजा श्रीराम की माता कौशल्या छत्तीसगढ़ की ही थी। छत्तीसगढ़ में कौशल्या माता का मंदिर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से २५ किलोमीटर दूर पर एक गांव चंदखुरी में स्थित है। यह मंदिर जनसेन तालाब के बीचोबीच स्थित है। 'छत्तीसगढ़ की संस्कृति' के अंतर्गत अंचल के प्रसिद्ध उत्सव, नृत्य, संगीत, मेला-मड़ई तथा लोक शिल्प आदि शामिल हैं।

छत्तीसगढ राज्य की संस्कृति : भाग - 01
इंडिया गेट, दिल्ली में प्रस्तुत छत्तीसगढ़ की झांकी
छत्तीसगढ राज्य की संस्कृति : भाग - 01
                                                     इंडिया गेट, दिल्ली में प्रस्तुत छत्तीसगढ़ की झांकी


त्योहार :

बस्तर का 'दशहरा', रायगढ़ का 'गणेशोत्सव' तथा बिलासपुर का 'राउत मढ़ई' ऐसे ही उत्सव हैं, जिनकी अपनी एक बहुत-ही विशिष्ट पहचान है। पंडवानी, भरथरी, पंथी नृत्य, करमा, दादरा, गैड़ी नृत्य, गौरा, धनकुल आदि की स्वर माधुरी भाव-भंगिमा तथा लय में ओज और उल्लास समाया हुआ है। छत्तीसगढ़ की शिल्पकला में परंपरा और आस्था का अद्भुत समन्वय विद्यमान है। यहाँ की पारंपरिक शिल्पकला में धातु, काष्ठ, बांस तथा मिट्टी एकाकार होकर अर्चना और अलंकरण के लिए विशेष रुप से लोकप्रिय हैं। संस्कृति विभाग ने कार्यक्रमों में पारंपरिक नृत्य, संगीत तथा शिल्पकला का संरक्षण और संवर्धन के साथ-साथ कलाकारों को अवसर भी प्रदान किये हैं। इस तरह छत्तीसगढ़ राज्य त्योहारों एवं पर्वों में भी अग्रणी है।


इस तरह हम छत्तीसगढ़ के संस्कृति के संबंध में और भी जानकारी आगे देंगे जैसे कि छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय नृत्य, छत्तीसगढ़ पुरातत्व से संबंधित जानकारी, छत्तीसगढ़ की लोक गीत आदि । इसके लिए आप हमारे ब्लॉक से जुड़े रहें।



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मंगलवार, 23 जून 2020

जगन्नाथ रथ यात्रा


श्री जगन्नाथ रथ यात्रा को लेकर कई धार्मिक मान्यताएं हैं। स्कंद पुराण के अनुसार एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर देखने की इच्छा प्रभु जगन्नाथ के सामने प्रकट की और द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की। जिसके बाद भगवान जगन्नाथ ने उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए उन्हें रथ में बैठाकर नगर का भ्रमण करवाया। जिसके बाद से यहां हर साल जगन्नाथ रथयात्रा निकाली जाती हैं।


जगन्नाथ रथ यात्रा
                    
हमारे भारत देश के उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। यह भारतीय संस्कृति की मुख्य धरोहर है । उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा जी और श्रीकृष्ण जी की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी ही हैं। इसी के प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ  जी से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है। श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा यही से निकाली जाती है । इनका हमारी भारतीय संस्कृति मे विशेष महत्व है ।
               पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।


जगन्नाथ रथ यात्रा

          श्री जगन्नाथ रथ यात्रा के तीनों रथ लकड़ी के बने होते हैं जिन्हें श्रद्धालु खींचकर चलाते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए लगे होते हैं एवं भाई बलराम के रथ में 14 व बहन सुभद्रा के रथ में 12 पहिए लगे होते हैं मान्‍यताओं के अनुसार, जो भी व्‍यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर इस रथ को खींचता है उसे सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्‍य प्राप्‍त होता है। यही इस रथ यात्रा की खाशीयत कही जा सकती है । इस रथ यात्रा मे श्रद्धालुओ की भीड भगवान के प्रति  श्रद्धा एवम् अटुट प्रेम को प्रदर्शित करती है।
        इस रथ यात्रा में भगवान जगन्‍नाथ, बहन सुभद्रा और बलरामजी तीनों के रथ अलग-अलग होते हैं। इन तीनों रथों को नगर में भ्रमण करवाया जाता है और फिर ये तीनों अपनी मौसी के घर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। यहां विभिन्‍न प्रकार के 56 भोग लगाकर तीनों की खातिरदारी की जाती है। 


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सोमवार, 22 जून 2020

हिंदु धर्म


 
हिंदु धर्म सबसे प्राचीन धर्म है । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हिन्दू धर्म 90 हजार वर्ष पुराना बताया जाता है । हिन्दू धर्म में सबसे पहले 9057 ईसा पूर्व, स्वायंभुव मनु हुए, 6673 ईसा पूर्व में वैवस्वत मनु हुए, भगवान श्रीराम जी का जन्म 5114 ईसा पूर्व और श्रीकृष्ण जी का जन्म 3112 ईसा पूर्व बताया जाता हैं । वर्तमान शोध के अनुसार 12 से 15 हजार वर्ष प्राचीन और ज्ञात रूप से लगभग 24 हजार वर्ष पुराना धर्म हिन्दू धर्म को माना जाता हैं । इस तरह हिंदु धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म माना जाता है । 

हिंदु धर्म



सनातन धर्म पृथ्वी के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है, हालाँकि इसके इतिहास के बारे में अनेक विद्वानों के अनेक मत हैं। आधुनिक इतिहासकार हड़प्पा, मेहरगढ़ आदि पुरातात्विक अन्वेषणों के आधार पर इस धर्म का इतिहास कुछ हज़ार वर्ष पुराना मानते हैं। जहाँ भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, भगवान शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, शिवलिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इन सब चिजो के मिलने के कारण ही हिंदु धर्म की प्राचीनता के बारे में पता चलता है । इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। ये ही लोग आर्यंस कहलाते थे । पशुपालन इनकी जीविका का मुख्य साधन था ।

                  हिंदु धर्म

आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गए। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गए, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आए। हिन्दू मान्यता के अनुसार वेद, उपनिषद आदि ग्रन्थ अनादि, नित्य हैं, ईश्वर की कृपा से अलग-अलग मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को अलग-अलग ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ जिन्होंने फिर उन्हें लिपिबद्ध किया। बौद्ध और धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ। हिंदु धर्म के बारे मे अध्ययन करने से बहुत सारी रोचक बातो के बारे मे पता चलता है । इससे हमे पुरातत्व चिजो के बारे मे जानकारी प्राप्त होती है साथ ही प्राचीन धर्म हिंदु धर्म की विशालता एवम् प्राचीनता के बारे मे पता चलता है । 
                             हम आपको भारत की प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता आदि के बारे मे विस्तृत जानकारी प्रदान करते रहेंगे । 



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सोमवार, 15 जून 2020

ओडिशा में महानदी में मिला 500 साल पुराना मंदिर

हमारे भारत देश की संस्कृति विशाल है। यहां बहुत सारे प्राचीन मंदिर और प्राचीन इमारतें है जो कि तब पता चलता है जब इसकी खुदाई कि जाती है या पानी में डूबा हुआ मिलता है । यह हमारी भारतीय संस्कृति की रहस्य का उजागर करती है। आज इसी तरह समाचार में एक प्राचीन जगह का पता चला जो कि भारतीय संस्कृति से संबंधित है इसलिए उसके बारे में बताया जा रहा है। इसकी जानकारी हमारी प्राचीन चिजो मे जानने के लिये महत्वपुर्ण है ।
ओडिशा में महानदी में मिला 500 साल पुराना मंदिर
दीपक के नायक द्वारा बनाया गया


ओडिशा में महानदी में मिला 500 साल पुराना मंदिर

ओडिशा के नयागढ़ जिले में एक 500 साल पुराना मंदिर महानदी से बाहर आ गया । कई सालों पहले यह मंदिर डूब गया था। इसमें भगवान गोपीनाथ की प्रतिमाएं थीं, जिन्हें भगवान विष्णु का रूप माना जाता है। यह एक प्राचीन मंदिर है।
इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (INTACH) की आर्केलॉजिकल सर्वे टीम ने हाल ही में दावा किया है कि उन्होंने कटक से महानदी में एक प्राचीन जलमग्न मंदिर की खोज की है।

  मंदिर 60 फीट लंबा था

जलमग्न मंदिर की चोटी की खोज नयागढ के पास पद्मावती गांव में बाडेश्वर के पास नदी के बीच में की गई थी। 60 फीट लंबा यह मंदिर 15वीं शताब्दी के आखिर या 16वीं शताब्दी की शुरुआत में बना था। अब से 11 साल पहले भी इसी तरह यह मंदिर पानी से बाहर आ गया था । 
प्रोजेक्ट असिस्टेंट दीपक कुमार नायक ने ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में रूचि रखने वाले रवीन्द्र कुमार राणा की मदद से यहां की जांच की थी। दीपक कुमार ने बताया कि गोपीनाथ मंदिर भगवान विष्णु का ही मंदिर था। यह प्राचीन मंदिर है और इसका पता लगना बहुत बडी उपलब्धी है।

 19वीं शताब्दी में नदी में डूबे कई गांव और मंदिर 

उन्होंने बताया कि पद्मवती गांव सतपतना का हिस्सा था, यानि वहां 7 गांव थे. 19वीं शताब्दी में नदी का स्तर बढ़ने के कारण यहां के लोग ऊंचे स्थानों पर जा बसे। इस दौरान गांव वालों ने न केवल खुद के स्थान को बदला, बल्कि मंदिर के देवताओं को भी अपने साथ ले गए। 

जल स्तर के बढ़ने से डूबे लगभग 22 प्राचीन मंदिर

रविंद्र राणा ने कहा कि पिछले एक साल में, बदलते जल स्तर के कारण इसे 4 से 5 दिनों तक देखा गया था. स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस जगह करीब 22 मंदिर थे, जो पानी का स्तर बढ़ने के बाद नदी में डूब गए।

 प्राचीन मंदिर के आस-पास के इलाके में लगातार हो रही है खोज

महानदी प्रोजेक्ट (INTACH) के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर अनिल धीर ने बताया, “हम महानदी के स्मारकों का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। हम इस मंदिर के चारों तरफ पांच किलोमीटर के दायरे में और मंदिरों और धरोहरों की खोज कर रहे हैं। लोग पहले से ही जानते थे कि इसके नीचे एक मंदिर है।"
                           इस तरह महानदी प्रोजेक्ट के कारण हमे इतना पुराना मंदिर के बारे मे पता चला। इस तरह हमारे भारतीय संस्कृति ब्लाग मे हमारे ब्लाग से सम्बंधित प्राचीन चिजो के खोज की खबरे मिलती रहेंगी ।




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धर्म


धर्म


विश्व भर में भारत में धर्मों में विभिन्नता सबसे ज्यादा है, जिनमें कुछ सबसे कट्टर धार्मिक संस्थायें और संस्कृतियाँ शामिल हैं। आज भी धर्म यहाँ के ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों के बीच मुख्य और निश्चित भूमिका निभाता है।
      धर्म भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। 'धर्म' शब्द का पश्चिमी भाषाओं में किसी समतुल्य शब्द का पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, 'धारण करने योग्य'सबसे उचित धारणा, अर्थात जिसे सबको धारण करना चाहिये'। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। ऐसा माना जाता है कि धर्म मानव को मानव बनाता है। 
                        भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि देश राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे, किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है,धर्म निरपेक्ष देश में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है तथा धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।
                  भारत देश में विभिन्न धर्म को मानने वाले लोग निवास करते हैं लेकिन वे सभी एक दूसरे के धर्म का सम्मान भी करते है।यही बातें हमारे भारत देश की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देती है। मेरा मानना है कि जिस देश में धर्म के नाम पर मतभेद नहीं होता वह देश बहुत ही सुंदर, अच्छा, स्वच्छ वातावरण वाला होता है ।




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गुरुवार, 11 जून 2020

कोरोना वायरस पर भारतीय प्राचीन ज्ञान आयुर्वेद का महत्व



* कोरोना वायरस से लडने के लिये मनुष्य का रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होना चाहिये । वैज्ञानिक दृष्टि से यदि रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत रहा तो मनुष्य कोरोना को मात दे सकता है । रोग प्रतिरोधक क्षमता का अर्थ बिमारीयो से लडने कि क्षमता से है । इसे हम दैनिक जीवन मे उपयोग करने वाले दैनिक वस्तुओ से कर सकते है जैसे कि हल्दी, तुलसी,लहसुन,खाट्टे फल, आंवला, नीबू , लौंग,अदरक, दालचीनी, काली मिर्च, सुखी अदरक आदि । इन सबके बारे मे हमारे भारतीय ज्ञान आयुर्वेद मे बताया गया है । चुंकि आयुर्वेद एक भारतीय आयुर्विज्ञान है । रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने का ऐसा अर्थ नही है कि यही कोरोना वायरस से लडने का ईलाज है या कोई दवाई है । हम यहाँ पर केवल यह बताने का प्रयाश कर रहे है कि जब हमारे पास इस बिमारी से लडने के लिये कोई भी दवाई या वैक्सिन नही है तब की स्थिति मे हम आयुर्वेद को अपना कर आयुर्वेद के जानकार के बताये अनुसार अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढा सकते है । भारतीय विद्वान बताते है कि हम व्यायाम की सहायता से भी अपने आप को कोरोना वायरस से बचने के लिये शरीर को मजबूत बना सकते है । जब हम आयुर्वेद के महत्व के बारे मे पढ रहे है तब उनके बारे मे जानना भी बहुत जरूरी है ।
आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद) पूरे विश्व में प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का एक मिश्रण है आयुर्वेदनाम का अर्थ है, ‘जीवन से सम्बन्धित ज्ञान। आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है। आयुर्वेद का मानव जीवन में गहरा प्रभाव पड़ता है। 
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)
                          आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य। इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वैदिक चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं (अष्टांग वैद्यक), ये आठ अंग ये हैं- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।





                               आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के सन्दर्भ में, चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से दोनों अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास में ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता (अग्निवेश तंत्र) का निर्माण किया- जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार-स्तम्भ है। इस तरह हमारी भारतीय प्राचीनतम ज्ञान का सुंदर उदाहरण आयुर्वेद है। आयुर्वेद हमारे भारत का प्राचीनतम तत्व एवम् अभिन्न अंग है इसी कारणवस इसके संबंध में जानकारी दी जा रही है। आइये कुछ चीजो के बारे में बात करते है जैसे कि हमारे भारत में हल्दी का उपयोग खाने के सामान में अत्यधिक मात्रा में की जाती है। हल्दी का आयुर्वेद से सीधा नाता है।  रसोई की शान होने के साथ-साथ हल्दी कई चामत्कारिक औषधीय गुणों से परिपूर्ण है। हल्दी गुमचोट के इलाज में तो सहायक है ही साथ ही कफ-खांसी सहित अनेक बीमारियों के इलाज़ में काम आती है। इसके अलावा हल्दी सौन्दर्यवर्धक भी मानी जाती है और प्रचीनकाल से ही इसका उपयोग रूप को निखारने के लिए किया जाता रहा है। वर्तमान समय में हल्दी का प्रयोग उबटन से लेकर विभिन्न तरह की क्रीमों में भी किया जा है। इस तरह इसका स्वास्थ्य को तंदरुस्त बनाए रखने के लिए अत्यधिक आवश्यक है।
             भारत में आंवला का महत्व प्राचीन काल से ही है । भारतीय विद्वान कहते है कि आंवला के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। चूंकि हम जानते है कि आंवला, निबू में विटामिन सी प्रचुर मात्रा होती है। इसका उपयोग बहुत सारे रोगों के निवारण के लिए भी किया जाता है। अतः आंवला के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
                         लहसुन कई स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने के लिए जानी जाती है। लहसुन ब्लड प्रेशर को प्रबंधित करने और धमनियों को सख्त होने से रोकने में मदद कर सकती है. लहसुन को पहले ही फ्लू और इंफेक्शन से लड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। आप भी लहसुन का सेवन कर प्राकृतिक तरीके से रोग प्रतिरोधक क्षमता को बेहतर कर सकते हैं।
                      अदरक में एंटी बैक्टीरियल और एंटीऑक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं, जो कई बीमारियों से बचाने में मददगार हैं। साथ ही अदरक का उपयोग रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में भी किया जाता है।




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सोमवार, 8 जून 2020

भारतीय संस्कृति का वर्णन




भारतीय संस्कृति के बारे मे जब हम देखते है तो हमे यह पता चलता है कि भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी हमारी भारतीय संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है और विश्व का आकर्षक बिंदु बना हुआ है जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम जैसे और अन्य देशो की संस्कृतिया अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। यह सब चिजे भारतीय संस्कृति की महानता का गुनगान करती है गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं और यही प्रेरणा हमारे देेश के विकाश की आधारशीला हैं।


                     
भौगोलिक दृष्टि से भारत एक विविधताओं वाला देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। हमारे इस विशाल देश में अनेक विभिन्नताओं के बाद भी भारत की एक अलग ही सांस्कृतिक सत्ता रही है। हिमालय सम्पूर्ण देश के गौरव का प्रतीक रहा है, तो गंगा यमुना और नर्मदा जैसी नदियों की स्तुति यहाँ के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। राम, कृष्ण और शिव की आराधना यहाँ सदियों से की जाती रही है। भारत की सभी भाषाओं में इन देवताओं पर आधारित साहित्य का सृजन हुआ है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान प्रचलित हैं। विभिन्न रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज त्यौहारों में भी समानता है। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है। भारत का पर्वतीय भू-भाग, जिसकी सीमा पूर्व में ब्रह्मपुत्रऔर पश्चिम में सिन्धु नदियों तक विस्तृत है। इसके साथ ही गंगा, यमुना, सतलुज की उपजाऊ कृषि भूमि, विन्ध्य और दक्षिण का वनों से आच्छादित पठारी भू-भाग, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश तथा पूर्व में असम और मेघालय का अतिवृष्टि का सुरम्य क्षेत्र सम्मिलित है। इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। यही हमारी भारतीय संस्कृति की विशालता है। जब हमारी संस्कृति के बारे मे अध्ययन किया जाता है तब बहुत सारी रोचक तथ्यो के बारे मे पता चलता है 



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